Thursday, April 19, 2018

ग़ज़ल

ग़ज़ल  

अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसीउर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुइ। संगीत के क्षेत्र में इस विधा को गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से अलग शैली निर्मित हुई।

स्वरूप

ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है। इसके पहले शेर को मतला कहते हैं। ग़ज़ल के अंतिम शेर को मक़्ता कहते हैं। मक़्ते में सामान्यतः शायर अपना नाम रखता है। आम तौर पर ग़ज़लों में शेरों की विषम संख्या होती है (जैसे तीन, पाँच, सात..)।[1] एक ग़ज़ल में 5 से लेकर 25 तक शेर हो सकते हैं। ये शेर एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। कभी-कभी एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं। ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।
ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर समाप्त होता हो।[1]
ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाहे बैत कहा जाता है। ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को दीवान कहते हैं जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो। 

ग़ज़ल की परम्परागत अवधारणा कई कई शतक पुरानी है इसलिये किसी काव्य रचना का ग़ज़ल कहा जाना इस बात पर आधारित होता है कि उसमें शिल्पगत मान्यताओं का कहां तक निर्वाह हुआ हे? ग़ज़ल के रूपाकार की मूलभूत मान्यताये ही इस अध्याय में हमारी आलोचना का मुख्य विषय है. काव्य शास्त्र में ग़ज़ल के रूप विधान में मतला, मक्ता, रदीफ, काफिया, शेर, मिसरा, बहर इत्यादि का उल्लेख स्पष्टः होता है.
                ग़ज़ल के प्रत्येक चरण को मिसरा कहा जाता है, और दो मिसरे अर्थात दो चरण मिलकर एक शेर की रचना करते हैं. दूसरे शब्दों में दो पंक्तियों का जोड़ा शेर कहलाता है. शेर की पहली पंक्ति का ‘मिसरा-ए-अव्वल’ यानी ऊपर वाला, तथा दूसरी पंक्ति को ‘मिसरा-ए-सानी’(सानी का शाव्दिक अर्थ है दूसरा) कहा जाता है.
ग़ज़ल का प्रथम शेर मतला और अन्तिम शेर मक्ता कहलाता है. ग़ज़ल में कभी कभी सानी मतला भी हो सकता है अर्थात दूसरा मतला, जबकि मतले के बाद के शेर के दोनों मिसरों में मतले की भांति काफिया, रदीफ का निर्वाह किया गया हो.
मतले के दनेा मिसरों, तत्पश्चात् प्रत्यके शेर व मक्ते के दूसरे मिसरे में सबसे अंत में रदी फ से पूर्व काफिया स्थित होता है. ग़ज़ल के मक्ते में तखल्लुस अर्थात रचयिता कवि का उपनाम होता है. मतले से लेकर मक्ते तक ग़ज़ल का प्रत्येक शेर एक दूसरे से असंबद्ध होता है. अर्थात भाव या विचार की दृष्टि से उनमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता. अतः प्रत्येक शेर अपने में पूर्ण एवं स्वतंत्र होता है. ग़ज़ल के प्रारूप को निम्नरूप में सूत्रबद्ध किया जा सकता है.
प्रथा - मतला मिसरा-ए-अव्वल---------------------काफिया, रदीफ.
द्वितीय- शेर मिसरा-ए-सानी----------------------काफिया, रदीफ.
मिसरा-ए-अव्वल---------------------------- मिसरा-ए-सानी--------------------काफिया, रदीफ.
तृतीय, चतुर्थ, पंचम द्वितीय शेर के अनुसार
या अधिकतम जितने
शेर ग़ज़ल में लिखे
गये हों
अन्तिम- मक्ता मिसरा-ए-अव्वल----------------तखल्लुस-------
मिसरा-ए-सानी--------------------काफिया, रदीफ
ग़ज़ल  में तखल्लुस का प्रयोग मक्ते के पहले या दूसरे मिसरे में सुविधानुसार किया जा सकता है. ग़ज़ल का प्रत्येक मिसरा जिस वज़न या छंद में होता है, उसे ही बहर कहते है.


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